कौन नहीं चाहेगा कि वह अपनी बचत के पैसे पर ज्यादा से ज्यादा रिटर्न हासिल करे। अगर आप अपने मूलधन को बगैर जोखिम में डाले यह कर सकते हैं तो भला इससे बेहतर क्या होगा। हालांकि जोखिम और मुनाफे का रिश्ता बहुत गहरा है, खासतौर पर शेयर बाजार में। ईटीआईजी आपको कुछ ऐसी गलतियों के बारे में बता रहा है, जो निवेशक अक्सर करते हैं। साथ ही हम कुछ ऐसी बातें भी बता रहे हैं, जिनसे आपको सोच-समझकर फैसला करने में मदद मिलेगी।
लंबे समय तक निवेश करना हो तो शेयर बाजार से बेहतर कुछ भी नहीं होता। हालांकि शेयरों में निवेश करने पर पोर्टफोलियो की वैल्यू में उतार-चढ़ाव का जोखिम भी बना रहता है। ट्रेडिंग पैटर्न देखकर जानकार निवेशक किसी नतीजे पर पहुंच सकते हैं। छोटे निवेशकों के लिए इनसे कोई नतीजा निकालना मुश्किल होता है। वे अक्सर अपनी गलतियों से सीखते हैं। हालांकि कई बार एक ही गलती उन्हें बहुत भारी पड़ती है।
ईटीआईजी शेयर बाजार से जुड़े कुछ मिथक के बारे में यहां बता रहा है। हम आपको स्टॉक मार्केट से जुड़े कुछ दिलचस्प बातों की भी जानकारी दे रहे हैं, साथ ही यह भी बता रहे हैं कि कैसे आप बाजार के भुलावे में फंसने से खुद को बचा सकते हैं। इनसे न सिर्फ छोटे निवेशकों को बड़ी चूक से बचने में मदद मिलेगी बल्कि वे अच्छा रिटर्न भी हासिल कर सकते हैं
बड़े आईपीओ का असर
भारतीय शेयर बाजार में चार बड़े आईपीओ के अलावा रिलायंस पावर, कोल इंडिया, रिलायंस पेट्रोलियम और डीएलएफ में क्या कॉमन है? इन इश्यू के आने के बाद क्या हुआ, इसी सवाल में इसका जवाब छिपा है। चारों आईपीओ के आने के बाद शेयर बाजार में गिरावट आई। क्या यह संयोग है? अगर ऐसा है तो यह जबरदस्त संयोग है!
रिलायंस पावर के आईपीओ के बाद क्या हुआ? शेयर बाजार पर नजर रखने वाले इसे बखूबी जानते हैं। हालांकि दूसरे तीन आईपीओ के बाद बाजार में आई गिरावट को ज्यादातर निवेशकों ने इश्यू से जोड़कर नहीं देखा। कोल इंडिया के आईपीओ के बाद बीएसई सेंसेक्स में 9 फीसदी की गिरावट आई। डीएलएफ के ऑफर के बाद बाजार 7 फीसदी गिरा और रिलायंस पेट्रोलियम के इश्यू के बाद मार्केट में 16 फीसदी की गिरावट आई।
इन तथ्यों से ऐसा लगता है कि बड़े आईपीओ और शेयर बाजार के प्रदर्शन के बीच कुछ न कुछ रिश्ता जरूर है। एक बात तो तय है कि बड़े इश्यू के कई गुना ओवर-सब्सक्राइब होने पर शेयर बाजार में लिक्विडिटी कम हो जाती है। मिसाल के तौर पर कोल इंडिया का आईपीओ 15.2 गुना ओवर-सब्सक्राइब हुआ। इससे दो हफ्ते तक करीब 2.34 लाख करोड़ रुपया फंसा रहा। अगर आईपीओ से लिक्विडिटी पर इतना असर होगा तो शेयर बाजार इससे अछूता नहीं रह सकता।
कई लोग यह भी कहते हैं कि बड़े आईपीओ तभी आते हैं, जब शेयर बाजार का वैल्यूएशन पीक पर होता है। ऐसे में बाजार में गिरावट आना लाजिमी है। हालांकि ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो इससे इत्तेफाक नहीं रखते। उनका कहना है कि अगर ऐसा हुआ है तो इसे संयोग के अलावा और कुछ नहीं माना जा सकता।
इसके बावजूद इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि बड़े आईपीओ के बाद शेयर बाजार में गिरावट आती है। मार्केट में अगला बड़ा इश्यू ओएनजीसी का फॉलो-ऑन पब्लिक ऑफर होगा। सरकारी कंपनी 11,500 करोड़ रुपए का एफपीओ लाने जा रही है। एफपीओ की तारीख आने के बाद निवेशक इंडेक्स फ्यूचर्स के जरिए शेयर बाजार को शॉर्ट कर सकते हैं।
अंदर का मामला
जीटीएल, सत्यम और ऑर्किड केमिकल्स के बीच क्या समानता है? इन कंपनियों के शेयरों में बड़ी गिरावट आने से पहले कंपनी इनसाइडरों ने बड़ी संख्या में इनके शेयरों की बिकवाली की। यह ट्रेंड इन सभी कंपनियों में देखा गया। कंपनी के प्रमोटरों और महत्वपूर्ण कर्मचारियों के पास जो जानकारी होती है, वह छोटे निवेशक के पास नहीं होती। जब निवेशकों का यह समूह शेयरों की बिक्री करता है तो छोटे निवेशकों को सावधान हो जाना चाहिए। कंपनी इनसाइडर अगर बड़ी संख्या में शेयर की बिकवाली करते हैं तो उसके बाद उसकी कीमत में गिरावट आनी तय है।
शेयर बायबैक
कमजोर बाजार में शेयर को गिरावट से बचाने के लिए अक्सर कंपनियां शेयर बायबैक की घोषणा करती हैं। ओपन मार्केट शेयर बायबैक अक्सर लंबे समय तक चलता है। इसमें कंपनी बायबैक के लिए एक कीमत तय करती है। साथ ही वह यह भी बताती है कि बायबैक पर कंपनी अधिकतम कितनी रकम खर्च करेगी। इससे बाजार को यह संकेत मिलता है कि किस स्तर पर कंपनी शेयर बायबैक करेगी। इससे शेयर की कीमत को सहारा मिलता है। मिसाल के तौर पर रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर तीन बायबैक योजनाएं पूरी कर चुकी है। अभी कंपनी की चौथी बायबैक स्कीम चल रही है। इसी तरह से सास्केन कम्युनिकेशंस ने 2010 में शेयर बायबैक किया था। कंपनी का प्रदर्शन उस वक्त कुछ तिमाहियों से खराब चल रहा था। ऐसे में शेयर की कीमत में गिरावट थामने के लिए उसने बायबैक स्कीम लॉन्च की थी।
हालांकि शेयर बायबैक पूरी तरह से कंपनी पर निर्भर करता है। इसके लिए उसे मजबूर नहीं किया जा सकता। कंपनी कभी भी बायबैक योजना को रोक सकती है। ऐसे में बायबैक से सिर्फ सेंटीमेंट ही मजबूत होता है। वास्तविकता यह है कि बहुत कम कंपनियां मार्केट वैल्यू को बचाने के लिए बायबैक योजनाएं लॉन्च कर रही हैं।
डीलिस्टिंग की चालबाजी
मार्केट में हर कोई सस्ते में शेयर खरीदना चाहता है और उसे महंगे दाम पर बेचना चाहता है। डीलिस्टिंग से पहले प्रमोटर चाहते हैं कि उनकी कंपनी के शेयर की कीमत कम हो जाए। इससे उन्हें सस्ते में शेयर खरीदने का मौका मिलता है। डीलिस्टिंग या बायबैक की अफवाह के चलते अक्सर शेयर की कीमत काफी बढ़ जाती है। हालांकि ऐसी घटनाओं के बाद अगर आप उन पर नजर डालें तो यह बात सामने आएगी कि डीलिस्टिंग के पहले कंपनी के तिमाही नतीजे खराब होने लगते हैं।
बिनानी सीमेंट, सुल्जर इंडिया, पैरी एग्रो, जीई कैपिटल ट्रांसपोर्टेशन फाइनैंशल सर्विसेस और रेबैन सन ऑप्टिक के मामलों में ऐसा ही हुआ था। ये कंपनियां पिछले कुछ सालों में डीलिस्ट हुई हैं। यहां निरमा की मिसाल भी दी जा सकती है। यह कंपनी मई 2011 में डीलिस्ट हुई। वित्त वर्ष 2011 में कंपनी का मुनाफा साल दर साल आधार पर 69 फीसदी गिरा। हालांकि उस दौरान दूसरी एफएमसीजी कंपनियों के लाभ में अच्छी बढ़ोतरी हुई थी। हालांकि कुछ कंपनियां इसकी अपवाद भी हैं। यहां एटलस कॉपको और माइक्रो इंक की मिसाल दी जा सकती है। इन कंपनियों का मुनाफा डीलिस्टिंग के वक्त तक मजबूत बना रहा। इन कंपनियों को रीटेल निवेशकों को शेयर टेंडर करने के लिए अच्छी कीमत चुकानी पड़ी।
बुरी खबरों का फायदा उठाएं
कुछ लोगों का मंत्र यह हो सकता है कि 'किसी भी तरह की पब्लिसिटी अच्छी होती है'। हालांकि ऐसे भी लोग हैं जो बुरी खबरों के आने पर उससे जुड़ी कंपनियों से दूरी बनाना पसंद करते हैं। अगर आप कंपनियों के रिजल्ट पर करीबी नजर रखें तो इस बात को अच्छी तरह समझ सकते हैं। वीकेंड पर जितनी कंपनियों के रिजल्ट आते हैं, वो अक्सर खराब होते हैं। वहीं रिजल्ट सीजन के आखिरी दिन नतीजे घोषित करने वाली कंपनियों का प्रदर्शन भी बुरा रहता है। इसके उलट जो कंपनियां सीजन की शुरुआत में नतीजों की घोषणा करती हैं, उनसे बाजार को मायूसी नहीं होती। शुक्रवार की शाम को बाजार बंद होने के बाद जो कंपनियां नतीजों की घोषणा करती हैं, उनका प्रदर्शन भी अच्छा नहीं रहता।
कंपनियां आखिर ऐसा करती क्यों हैं? दरअसल, वे नहीं चाहतीं कि मीडिया में खराब नतीजों की ज्यादा चर्चा हो और उससे शेयर की कीमत में गिरावट आए। हालांकि बाजार खुलने पर खराब नतीजों का असर शेयर की कीमत पर पड़ता है। शुक्रवार की शाम को नतीजों की घोषणा करने के बाद दो दिन तक बाजार बंद रहता है। ऐसे में बाजार खुलने के बाद अक्सर शेयर की कीमत में बड़ी गिरावट नहीं आती। इस मामले में हिंदुस्तान यूनिलीवर की मिसाल दी जा सकती है। 2009 में कंपनी ने चार में तीन तिमाही के नतीजे वीकेंड पर जारी किए। कंपनी ने जो नतीजे सप्ताहांत में जारी किए, उनसे बाजार को मायूसी हुई। वहीं जिस तिमाही में रिजल्ट के बेहतर रहने की उम्मीद थी, वह मंगलवार को आया।
कुछ ऐसा ही आईसीआईसीआई बैंक के साथ भी हुआ था। दिसंबर 2008 में बैंक का रिजल्ट खराब रहने की आशंका थी। उस तिमाही में बैंक का मुनाफा 35 फीसदी घटा। आईसीआईसीआई बैंक ने तब नतीजे शनिवार की शाम को जारी किए। ऐसा ही एक हालिया उदाहरण रिलायंस कम्युनिकेशंस का है। पिछली तीन तिमाहियों में कंपनी का नतीजा खराब रहने की आशंका थी। तीनों ही बार कंपनी ने शनिवार की शाम को नतीजे जारी किए। अगर कोई कंपनी बोर्ड मीटिंग वीकेंड पर रखती है या बगैर किसी वजह के इसे टालती है तो यह खराब रिजल्ट का संकेत हो सकता है।
होल्डिंग कंपनी थ्योरी
ट्रेडर और एनालिस्ट अक्सर होल्डिंग कंपनियों के शेयर खरीदने की सलाह देते हैं। वह ऐसी कंपनियों में निवेश करने की सलाह भी देते हैं, जिनके पास जमीन या दूसरी प्रॉपर्टी है। ऐसे मामलों में अक्सर दलील दी जाती है कि एसेट्स की कीमत कंपनी के मार्केट कैप से ज्यादा है। इन बातों का कंपनी की वैल्यू पर किस हद तक असर पड़ता है? अगर जमीन या दूसरी प्रॉपर्टी नहीं बेची जाती है तो उससे कंपनी को कोई फायदा नहीं होता। ऐसे में वैल्यू लॉक रहती है, लिहाजा शेयरधारक को भी उसका फायदा नहीं मिलता। शेयर बाजार में यूबी होल्डिंग, जेएसडब्ल्यू होल्डिंग, बजाज होल्डिंग, कल्याणी इनवेस्टमेंट्स जैसी कई होल्डिंग कंपनियां हैं। ये अलग-अलग कारोबारी घरानों की कंपनियां हैं और इनकी ग्रुप की कई कंपनियों में हिस्सेदारी है। अगर ग्रुप की कंपनियों में हिस्सेदारी के हिसाब से इन होल्डिंग कंपनियों की वैल्यू निकाली जाए तो अक्सर उनका मार्केट कैप बहुत कम नजर आता है।
यहां यह ख्याल रखना चाहिए कि होल्डिंग कंपनियां शायद ही ग्रुप कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी बेचेंगी। यही वजह है कि इस तरह की कंपनियों के शेयर हमेशा भारी डिस्काउंट पर ट्रेड करते हैं। ऐसी कंपनियों में टाटा कैपिटल जैसी फर्म भी शामिल है, लेकिन यह इनवेस्टमेंट कारोबार से जुड़ी है। साथ ही टाटा ग्रुप की कई लिस्टेड कंपनियों में भी इसकी हिस्सेदारी है। टाटा कैपिटल अक्सर अपने इनवेस्टमेंट से निकलती रहती है। इस वजह से उसके शेयर होल्डिंग कंपनियों के मुकाबले कम डिस्काउंट पर ट्रेड करते हैं।
मौसम का जादू
कुछ सेक्टर की कंपनियों का मार्केट कैप खास सीजन में बढ़ता है। मिसाल के तौर पर एग्रोकेमिकल सेक्टर को लें। इस सेक्टर की कंपनियों के शेयर मानसून से पहले उछलते हैं। फर्टिलाइजर कंपनियों के शेयरों में भी मानसून से पहले तेजी आती है। वहीं रेलवे और एजुकेशन सेक्टर की कंपनियों के शेयर बजट से पहले उछलते हैं।
पहली नजर में शेयर बाजार में उतार-चढ़ाव अव्यवस्थित लग सकता है, हालांकि इसका भी एक पैटर्न होता है। मौसम की तरह इक्विटी मार्केट और कई शेयरों का अपनी सीजन होता है। ऐतिहासिक तौर पर जनवरी या सितंबर शेयर बाजार के लिए अच्छा रहा है। वहीं मार्च और मई में बाजार पर कई बार दबाव दिखा है। निवेशक इस तरह के पैटर्न का फायदा उठा सकते हैं।
जनवरी और फरवरी में अक्सर उन कंपनियों के शेयर महंगे होते हैं, जिनकी कीमत पर बजट घोषणाओं का असर पड़ सकता है। इस तरह की कंपनियों में नवनीत पब्लिकेशंस, एडुकॉम्प, जैन इरिगेशन और फर्टिलाइजर सेक्टर की कंपनियां शामिल हैं। रेलवे सेक्टर से जुड़ी कालिंदी रेल, टेक्समैको, टीटागढ़ वैगन जैसी कंपनियों के शेयर रेल बजट से पहले तेजी के दौर में होते हैं।
गर्मी के सीजन में बिजली कंपनियों का वैल्यूएशन बढ़ जाता है। इस दौरान इंडस्ट्री मचेर्ंट सेल्स के तहत ऊंची दरों पर बिजली बेच सकती है। जब गर्मी का मौसम खत्म होने को होता है और मानसून दस्तक देने वाला होता है, तब एग्रो-इनपुट सेक्टर की कंपनियों की पूछ बाजार में बढ़ जाती है। इस सेक्टर में फर्टिलाइजर, एग्रो-केमिकल और सीड कंपनियां शामिल हैं। मानसून के खत्म होने के बाद फसलों की कटाई का सीजन आता है। उसी दौरान फेस्टिवल सीजन भी शुरू होता है। इस सीजन में ग्राहक ज्यादा पैसा खर्च करते हैं। इस सीजन में कंज्यूमर कंपनियों के शेयरों में अक्सर तेजी देखी जाती है।
इस दौरान सीमेंट, कंस्ट्रक्शन, पेंट, कंज्यूमर ड्यूरेबल्स और रीटेल सेक्टर का प्रदर्शन अच्छा रहता है। निवेशक इस ट्रेंड का फायदा उठा सकते हैं। हालांकि उन्हें यह ख्याल रखना होगा कि वह बाजार में किसी सेक्टर का सीजन आने से पहले ही उसमें निवेश करें। वहीं सीजन खत्म होने से पहले निकलना भी बेहद जरूरी है, तभी निवेशक को अच्छा रिटर्न मिलेगा।
बड़े आईपीओ: फील गुड फैक्टर
कंपनी अगर आईपीओ से पैसा जुटाती है तो उसका प्रचार करना उसके लिए मजबूरी होता है। अगर कोई बड़ी कंपनी आईपीओ ला रही हो तो प्रचार कुछ ज्यादा ही होता है। दिलचस्प बात यह है कि अक्सर ऐसे आईपीओ से पूरे सेक्टर का वैल्यूएशन बढ़ जाता है। डीएलएफ इसकी अच्छी मिसाल है। कंपनी के आईपीओ के आने से पहले रियल एस्टेट सेक्टर के वैल्यूएशन में बढ़त हुई। फरवरी 2006 में गीतांजलि जेम्स के आईपीओ से पहले जेम्स एंड ज्वैलरी सेक्टर की कंपनियों के शेयर महंगे हो गए थे। इसी तरह से दिसंबर 2009 में कॉक्स एंड किंग्स के आईपीओ से पहले थॉमस कुक की मार्केट वैल्यू बढ़ गई थी।
जब एसजेवीएन का आईपीओ मई 2010 में आया तो उससे पहले इस सेक्टर की एनएचपीसी और जेपी पावर वेंचर्स जैसी कंपनियों का वैल्यूएशन बढ़ गया था। दरअसल, तब इन कंपनियों में निवेशकों की दिलचस्पी बढ़ी थी। इसी तरह से ओरिएंट ग्रीन पावर का आईपीओ आने से पहले इसी सेक्टर की कंपनी इंडोविंड एनर्जी का वैल्यूएशन बढ़ गया था। अक्सर बड़ी कंपनियां ऊंचे वैल्यूएशन पर आईपीओ लाती हैं। इसका असर सेक्टर की दूसरी कंपनियों पर भी पड़ता है। ऐसे में उन कंपनियों में निवेश बनाए रखा जा सकता है, जिस सेक्टर से जुड़ी कंपनी कोई बड़ा आईपीओ लाने वाली हो। बेहतर यही होगा कि इस फॉर्मूले का इस्तेमाल तेजी वाले बाजार में किया जाए।
डिविडेंड मार्च
मार्च तिमाही की शुरुआत होते ही अक्सर इक्विटी लिंक्ड सेविंग स्कीम (ईएलएसएस) के विज्ञापन नजर आने लगते हैं। म्यूचुअल फंड इंडस्ट्री वैसे ग्राहकों को लुभाने की कोशिश करती है, जो टैक्स बचाने के लिए निवेश के विकल्प तलाश रहे होते हैं। अक्सर निवेशक उन स्कीमों की तरफ आकर्षित होते हैं, जिनका डिविडेंड ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा रहा हो। यहां यह ध्यान देना जरूरी है कि म्यूचुअल फंड और कंपनी के डिविडेंड में जमीन-आसमान का फर्क होता है। कंपनी अपने मुनाफे का एक हिस्सा शेयरधारकों को डिविडेंड के तौर पर देती है। वहीं म्यूचुअल फंड में निवेशक की रकम ही उसे डिविडेंड के तौर पर लौटाई जाती है। ऐसे में कोई म्यूचुअल फंड स्कीम जितने डिविडेंड का एलान करती है, उसके भुगतान के बाद स्कीम की एनएवी उतनी कम हो जाती है।
छोटे पैक का दम
जब कोई कंपनी शेयर बाजार से पहली बार पैसा जुटाने आती है तो निवेशकों के पास उसके बारे में जानकारी जुटाने का सिर्फ प्रॉस्पेक्टस ही जरिया होता है। कई बार आप देखते हैं कि ऐसी कंपनी का वित्तीय प्रदर्शन अचानक आईपीओ से पहले काफी बेहतर हो जाता है। वहीं आईपीओ के बाद कंपनी का वित्तीय प्रदर्शन कमजोर हो जाता है।
इसमें कोई शक नहीं कि कंपनी तभी शेयर बाजार में लिस्ट होना चाहेगी, जब उसका कारोबार बहुत अच्छा चल रहा हो। इससे उसे अच्छा वैल्यूएशन हासिल करने में मदद मिलती है। अक्सर कंपनियां आईपीओ से जुटाए गए फंड का इस्तेमाल कारोबार को बढ़ाने के लिए करती हैं, लेकिन इसमें वक्त लगता है। इसी वजह से आईपीओ के तुरंत बाद कई कंपनियों का वित्तीय प्रदर्शन कमजोर हो जाता है। वहीं दूसरी तरफ ऐसी भी कंपनियां हैं, जो आईपीओ से पहले उधार पर वेंडरों को सामान बेचती हैं। इससे उनकी बिक्री बढ़ती है, लिहाजा मुनाफे में भी बढ़ोतरी होती है। हालांकि अगर आप कैश फ्लो और वर्किंग कैपिटल पर नजर डालें तो यह गोलमाल आसानी से पकड़ में आ जाता है।
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